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Friday, 26 April 2019

21 दोहा पहेली

मुझे न कोई पा सके, चीज़ बड़ी मैं ख़ास।
मुझे न कोई खो सके, रहती सबके पास //. //

छोटी-सी है देह पर, मेरे वस्त्र पचास।
खाने की इक चीज़ हूँ, मैं हूँ सबसे ख़ास // . //

लम्बा-चौड़ा ज़िक्र क्या, दो आखर का नाम।
दुनिया भर में घूमता, शीश ढ़कूँ यह काम // . //

विश्व के किसी छोर में, चाहे हम आबाद।
रख सकते हैं हम उसे, देने के भी बाद // . //

वो ऐसी क्या चीज़ है
, जिसका है आकार।
चाहे जितना ढ़ेर हो, तनिक न उसका भार // . //

देखा होगा आपने, हर जगह डगर-डगर।

हरदम ही वो दौड़ता, कभी न चलता मगर // . //

घेरा है अद्भुत हरा, पीले भवन-दुकान।
उनमें यारों पल रहे, सब काले हैवान // . //

पानी जम के बर्फ़ है, काँप रहा नाचीज़।
पिघले लेकिन ठण्ड में, अजब-ग़ज़ब क्या चीज़ // . //

मैं हूँ खूब हरा-भरा, मुँह मेरा है लाल।
नकल करूँ मैं आपकी, मिले ताल से ताल // . //

सोने की वह चीज़ है, आती सबके काम।
महंगाई कितनी बढ़े, उसके बढ़े न दाम // १०. //

नाटी-सी वह बालिका, वस्त्र हरे, कुछ लाल ।
खा जाए कोई उसे, मच जाए बवाल // ११. //

अंग-रूप है काँच-का, रंग सभी अनमोल।
आऊँ काम श्रृंगार के, काया मेरी गोल // १२. //

अद्भुत हूँ इक जीव मैं, कोई पूंछ, न बाल।
बैठा करवट ऊँट की, मृग सी भरूँ उछाल // १३. //

बिन खाये सोये पिए, रहता सबके द्वार।
ड्यूटी देता रात-दिन, छुट्टी ना इतवार // १४. //

तनकर बैठा नाक पे, खींचे सबके कान।
उसका वजूद काँच का, देना इसपर ध्यान // १५. //

सर भी उसका पूंछ भी, मगर न उसके पाँव।
फिर भी दिखे नगर-डगर, गली-मुहल्ला-गाँव // १६. //

आ धमके वो पास में, लेकर ख़्वाब अनेक।
दुनिया भर में मित्रवर, शत्रू न उसका एक // १७. //

पूंछ कटे तो जानकी, शीश कटे तो यार।
बीच कटे तो खोपड़ी, नई पज़ल तैयार // १८. //

तेज़ धूप-बारिश खिले, देख छाँव मुरझाय।
अजब-ग़ज़ब वो फूल है, काम सभी के आय // १९. //

गोरा-चिट्टा श्वेत तन, हरी-भरी है पूँछ।
समझ न आये आपके, तो कटवा लो मूँछ // २०. //

दरिया है पानी नहीं, नहीं पेड़ पर पात।
दुनिया है धरती नहीं, बड़ी अनोखी बात // २१. //

***

(1) परछाई / (2) प्याज / (3) टोपी / (4) वचन / (5) अक्षर / (6) इंजन / (7) सरसों / (8) मोमबत्ती

(9) तोता / (10) चारपाई / (11) मिर्च / (12) चूड़ियाँ / (13) मेंढ़क / (14) ताला / (15) ऐनक /

(16) साँप / (17) नींद / (18) सियार / (19) छतरी / (20) मूली / (21) मानचित्र (नक़्शा)

Wednesday, 30 November 2016

परिचय

महावीर उत्तरांचली





जन्म  :   24.07.1971 को दिल्ली में। 
शिक्षा  :  स्नातक।

लेखन/प्रकाशन/योगदान  :   हिन्दी, उर्दू व गढ़वाली (बोली) पर भाषाधिकार। कहानी, लघुकथा एवं काव्य की विभिन्न विधाओं में रचनायें पत्र-पत्रिकाओं व संकलनों में प्रकाशित। आग का दरिया (ग़ज़लियात), नाचे मन का मोर है (जनक छन्द), अन्तरघट तक प्यास (दोहा) व बुलन्द अशआर (चुनिन्दा शे’र) प्रकाशित कृतियां। सुरंजन द्वारा संपादित ‘तीन पीढ़ियां: तीन कथाकार’ अंक में प्रेमचन्द, मोहन राकेश के साथ तीसरे कथाकार के रूप में शामिल। 
सम्पर्क  :   बी-4/79, पर्यटन विहार, बसुन्धरा एंक्लेव, नई दिल्ली-110096
मोबाइल  :  09818150516

हाइकु / महावीर उत्तरांचली

।।हाइकु।।
महावीर उत्तरांचली

पाँच हाइकु

1.
फूल-सा तन
हरा-भरा यौवन
बहके मन

2.
काली घटाएं
जब भी घिर आएं
हमें लुभाएं

3.
कब से मौन
छायाचित्र : डॉ बलराम अग्रवाल 
हृदय के भीतर
छिपा है कौन

4.
खूब सताया
तेरी यादों ने आकर
खूब रुलाया

5.
हम बेहाल
चली फिर आपने
गहरी चाल

  • बी-4/79, पर्यटन विहार, बसुन्धरा एंक्लेव, नई दिल्ली-110096

जनक छन्द / महावीर उत्तरांचली

महावीर उत्तरांचली
 







जनक छन्द
1.
वफ़ादार ये नैन हैं
हाल सखी जाने नहीं
साजन तो बेचैन हैं
2.
राजनीति सबसे बुरी
रेखांकन : किशोर श्रीवास्तव
‘महावीर’ सब पर चले
ये है दो धारी छुरी
3.
शांति-धैर्य गुमनाम है
मानवता दिखती नहीं
बस! कत्ल सरेआम है
  •  बी-4/79, पर्यटन विहार, वसुन्धरा एन्क्लेव, नई दिल्ली

Tuesday, 29 November 2016

ग़ज़लें / ग़ज़लकार : महावीर उत्तरांचली

ग़ज़लें 

ग़ज़लकार : महावीर उत्तरांचली

(1.)

ग़रीबों को फ़क़त, उपदेश की घुट्टी पिलाते हो
बड़े आराम से तुम, चैन की बंसी बजाते हो

है मुश्किल दौर, सूखी रोटियां भी दूर हैं हमसे
मज़े से तुम कभी काजू, कभी किशमिश चबाते हो

नज़र आती नहीं, मुफ़लिस की आँखों में तो खुशहाली
कहाँ तुम रात-दिन, झूठे उन्हें सपने दिखाते हो

अँधेरा करके बैठे हो, हमारी ज़िन्दगानी में
मगर अपनी हथेली पर, नया सूरज उगाते हो

व्यवस्था कष्टकारी क्यों न हो, किरदार ऐसा है
ये जनता जानती है सब, कहाँ तुम सर झुकाते हो

(2.)

जो व्यवस्था भ्रष्ट हो, फ़ौरन बदलनी चाहिए
लोकशाही की नई, सूरत निकलनी चाहिए

मुफलिसों के हाल पर, आंसू बहाना व्यर्थ है
क्रोध की ज्वाला से अब, सत्ता
बदलनी चाहिए
इंकलाबी दौर को, तेज़ाब दो जज़्बात का
आग यह बदलाव की, हर वक्त जलनी चाहिए

रोटियां ईमान की, खाएं सभी अब दोस्तो
दाल भ्रष्टाचार की, हरगिज न गलनी चाहिए

अम्न है नारा हमारा, लाल हैं हम विश्व के
बात यह हर शख़्स के, मुहं से निकलनी चाहिए

(3.)

बाज़ार मैं बैठे मगर बिकना नहीं सीखा
हालात के आगे कभी झुकना नहीं सीखा


तन्हाई मैं जब छू गई यादें मिरे दिल को
फिर आंसुओं ने आँख मैं रुकना नहीं सीखा

फिर आईने को बेवफा के रूबरू रक्खा
मैंने वफ़ा की लाश को ढकना नहीं सीखा

जब चल पड़े मंजिल की जानिब ये कदम मेरे
फिर आँधियों के सामने रुकना नहीं सीखा


(4.)

साधना कर यूँ सुरों की, सब कहें क्या सुर मिला
बज उठें सब साज दिल के, आज तू यूँ गुनगुना

हाय! दिलबर चुप न बैठो, राज़े-दिल अब खोल दो
बज़्मे-उल्फ़त में छिड़ा है, गुफ़्तगूं का सिलसिला

उसने हरदम कष्ट पाए, कामना जिसने भी की
व्यर्थ मत जी को जलाओ, सोच सब अच्छा हुआ

इश्क़ की दुनिया निराली, क्या कहूँ मैं दोस्तो
बिन पिए ही मय की प्याली, छा रहा मुझपर नशा

मीरो-ग़ालिब की ज़मीं पर, शेर जो मैंने कहे
कहकशां सजने लगा और लुत्फ़े-महफ़िल आ गया

(5.)

तीरो-तलवार से नहीं होता
काम हथियार से नहीं होता

घाव भरता है धीरे-धीरे ही
कुछ भी रफ़्तार से नहीं होता

खेल में भावना है ज़िंदा तो
फ़र्क कुछ हार से नहीं होता

सिर्फ़ नुक्सान होता है यारो
लाभ तकरार से नहीं होता

उसपे कल रोटियां लपेटे सब
कुछ भी अख़बार से नहीं होता

(6.)

यूँ जहाँ तक बने चुप ही मै रहता हूँ
कुछ जो कहना पड़े तो ग़ज़ल कहता हूँ

जो भी कहना हो काग़ज़ पे करके रक़म
फिर क़लम रखके ख़ामोश हो रहता हूँ

दोस्तो! जिन दिनों ज़िंदगी थी ग़ज़ल
ख़ुश था मै उन दिनों, अब नहीं रहता हूँ

ढूंढ़ते हो कहाँ मुझको ऐ दोस्तो
आबशारे-ग़ज़ल बनके मै बहता हूँ

(7.)

चढ़ा हूँ मै गुमनाम उन सीढियों तक
मिरा ज़िक्र होगा कई पीढ़ियों तक

ये बदनाम क़िस्से, मिरी ज़िंदगी को
नया रंग देंगे, कई पीढ़ियों तक

ज़मा शायरी उम्रभर की है पूंजी
ये दौलत ही रह जाएगी पीढ़ियों तक

"महावीर" क्यों मौत का है तुम्हे ग़म
ग़ज़ल बनके जीना है अब पीढ़ियों तक


(8.)

काश! होता मज़ा कहानी में
दिल मिरा बुझ गया जवानी में

फूल खिलते न अब चमेली पर
बात वो है न रातरानी में

उनकी उल्फ़त में ये मिला हमको
ज़ख़्म पाए हैं बस निशानी में

आओ दिखलायें एक अनहोनी
आग लगती है कैसे पानी में

तुम रहे पाक़-साफ़ दिल हरदम
मै रहा सिर्फ बदगुमानी में


(9.)

रेशा-रेशा, पत्ता-बूटा
शाखें चटकीं, दिल-सा टूटा

ग़ैरों से शिकवा क्या करते
गुलशन तो अपनों ने लूटा

ये इश्क़ है इल्ज़ाम अगर तो
दे
इल्ज़ाम मुझे मत झूटा
तुम क्या यार गए दुनिया से
प्यारा-सा इक साथी छूटा

शिकवा क्या ऊपर वाले से
भाग मिरा खुद ही था फूटा

(10.)

जां से बढ़कर है आन भारत की
कुल जमा दास्तान भारत की

सोच ज़िंदा है और ताज़ादम
नौ'जवां है कमान भारत की

देश का ही नमक मिरे भीतर
बोलता हूँ ज़बान भारत की

क़द्र करता है सबकी हिन्दोस्तां
पीढियां हैं महान भारत की

सुर्खरू आज तक है दुनिया में
आन-बान और शान भारत की

(11.)

दिल मिरा जब किसी से मिलता है
तो लगे आप ही से मिलता है

लुत्फ़ वो अब कहीं नहीं मिलता
लुत्फ़ जो शा'इरी से मिलता है

दुश्मनी का भी मान रख लेना
जज़्बा ये दोस्ती से मिलता है

खेल यारो! नसीब का ही है
प्यार भी तो उसी से मिलता है

है "महावीर" जांनिसारी क्या
जज़्बा ये आशिक़ी से मिलता है


(12.)

फ़न क्या है फनकारी क्या
दिल क्या है दिलदारी क्या

जान रही है जनता सब
सर क्या है, सरकारी क्या

झांक ज़रा गुर्बत में तू
ज़र क्या है, ज़रदारी क्या

सोच फकीरों के आगे
दर क्या है, दरबारी क्या

(13.)

तलवारें दोधारी क्या
सुख-दुःख बारी-बारी क्या

क़त्ल ही मेरा ठहरा तो
फांसी, खंजर, आरी क्या

कौन किसी की सुनता है
मेरी और तुम्हारी क्या

चोट कज़ा की पड़नी है
बालक क्या, नर-नारी क्या

पूछ किसी से दीवाने
करमन की गति न्यारी क्या

(14.)

हार किसी को भी स्वीकार नहीं होती
जीत मगर प्यारे हर बार नहीं होती

एक बिना दूजे का, अर्थ नहीं रहता
जीत कहाँ पाते, यदि हार नहीं होती

बैठा रहता मैं भी एक किनारे पर
राह अगर मेरी दुशवार नहीं होती

डर मत लह्रों से, आ पतवार उठा ले
बैठ किनारे, नैया पार नहीं होती

खाकर रूखी-सूखी, चैन से सोते सब
इच्छाएं यदि लाख उधार नहीं होती

(15.)

तसव्वुर का नशा गहरा हुआ है
दिवाना बिन पिए ही झूमता है

गुज़र अब साथ भी मुमकिन कहाँ था  
मैं उसको वो मुझे  पहचानता है
गिरी  बिजली नशेमन पर हमारे
न रोया कोई कैसा हादिसा है
बलन्दी नाचती है सर पे चढ़के
कहाँ वो मेरी जानिब देखता है
जिसे कल ग़ैर समझे थे वही अब
रगे-जां में हमारी आ बसा है

(16.)

नज़र में रौशनी है 
वफ़ा की ताज़गी है 
जियूं चाहे मैं जैसे 
ये मेरी ज़िंदगी है 
ग़ज़ल की प्यास हरदम 
लहू क्यों मांगती है 
मिरी आवारगी में 
फ़क़त तेरी कमी है
इसे दिल में बसा लो 
ये मेरी शा'इरी है

(17.)

सोच का इक दायरा है, उससे मैं कैसे उठूँ 
सालती तो हैं बहुत यादें, मगर मैं क्या करूँ 
ज़िंदगी है तेज़ रौ, बह जायेगा सब कुछ यहाँ 
कब तलक मैं आँधियों से, जूझता-लड़ता रहूँ 
हादिसे इतने हुए हैं दोस्ती के नाम पर 
इक तमाचा-सा लगे है, यार जब कहने लगूं 
जा रहे हो छोड़कर इतना बता दो तुम मुझे 
मैं तुम्हारी याद में तड़पूँ या फिर रोता फिरूँ 
सच हों मेरे स्वप्न सारे, जी, तो चाहे काश मैं 
पंछियों से पंख लेकर, आसमाँ छूने लगूं 

(18.)

दिल से उसके जाने कैसा बैर निकला 
जिससे अपनापन मिला वो ग़ैर निकला 
था करम उस पर ख़ुदा का इसलिए ही 
डूबता वो शख़्स कैसा तैर निकला 
मौज-मस्ती में आख़िर खो गया क्यों 
जो बशर करने चमन की सैर निकला 
सभ्यता किस दौर में पहुँची है आख़िर 
बंद बोरी से कटा इक पैर निकला 
वो वफ़ादारी में निकला यूँ  अब्बल 
आंसुओं में धुलके सारा  बैर निकला 

(19.)

आपको मैं मना नहीं सकता 
चीरकर दिल दिखा नहीं सकता 
इतना पानी है मेरी आँखों में 
बादलों में समा नहीं सकता 
तू फरिश्ता है दिल से कहता हूँ 
कोई तुझसा मैं ला नहीं सकता 
हर तरफ़ एक शोर मचता है 
सामने सबके आ नहीं सकता 
कितनी ही शौहरत मिले लेकिन 
क़र्ज़ माँ का चुका नहीं सकता 

(20.)
राह उनकी देखता है 
दिल दिवाना हो गया है 
छा रही है बदहवासी 
दर्द मुझको पी रहा है 
कुछ रहम तो कीजिये अब 
दिल हमारा आपका है 
आप जबसे हमसफ़र हो 
रास्ता कटने लगा है 
ख़त्म हो जाने कहाँ अब 
ज़िंदगी का क्या पता है 

(21.)
नज़र को चीरता जाता है मंज़र 
बला का खेल खेले है समन्दर 
मुझे अब मार डालेगा यकीनन 
लगा है हाथ फिर क़ातिल के खंजर 
है मकसद एक सबका उसको पाना 
मिल मस्जिद में या मंदिर में जाकर 
पलक झपकें तो जीवन बीत जाये 
ये मेला चार दिन रहता है अक्सर 
नवाज़िश है तिरी मुझ पर तभी तो 
मिरे मालिक खड़ा हूँ आज तनकर 

(22.)
बीती बातें याद न कर 
जी में चुभता है नश्तर 
हासिल कब तक़रार यहाँ 
टूट गए कितने ही घर 
चाँद-सितारे साथी थे 
नींद न आई एक पहर 
तनहा हूँ मैं बरसों से 
मुझ पर भी तो डाल नज़र 
पीर न अपनी व्यक्त करो 
यह उपकार करो मुझ पर 

(23.)
छूने को आसमान काफ़ी है 
पर अभी कुछ उड़ान बाक़ी है 
कैसे ईमाँ बचाएं हम अपना 
सामने खुशबयान साकी है 
कैसे वो दर्द को ज़बां देगा 
क़ैद में बेज़बान पाखी है 
लक्ष्य पाकर भी क्यों कहे दुनिया 
कुछ तिरा इम्तिहान बाक़ी है 
कहने हैं कुछ नए फ़साने भी 
इक नया आसमान बाक़ी है 

(24.)
लहज़े में क्यों बेरूख़ी है 
आपको भी कुछ कमी है 
पढ़ लिया उनका भी चेहरा 
बंद आँखों में नमी है 
सच ज़रा छूके जो गुज़रा 
दिल में अब तक सनसनी है 
भूल बैठा हादिसों में 
ग़म है क्या और क्या ख़ुशी है 
दर्द काग़ज़ में जो उतरा 
तब ये जाना शाइरी है 

(25.)
धूप का लश्कर बढ़ा जाता है 
छाँव का मंज़र लुटा जाता है 
रौशनी में इस कदर पैनापन 
आँख में सुइयां चुभा जाता है 
चहचहाते पंछियों के कलरव में 
प्यार का मौसम खिला जाता है 
फूल-पत्तों पर लिखा कुदरत ने 
वो करिश्मा कब पढ़ा जाता है 

(26.)
ख़्वाब झूठे हैं
दर्द देते हैं
रंग रिश्तों के
रोज़ उड़ते हैं
कैसे-कैसे सच
लोग सहते हैं
प्यार सच्चा था
ज़ख़्म गहरे हैं
हाथ में सिग्रेट 
तन्हा बैठे हैं

(27.)
मकड़ी-सा जाला बुनता है
ये इश्क़ तुम्हारा कैसा है
ऐसे तो न थे हालात कभी
क्यों ग़म से कलेजा फटता है
मैं शुक्रगुज़ार तुम्हारा हूँ
मेरा दर्द तुम्हें भी दिखता है
चारों तरफ़ तसव्वुर में भी
इक सन्नाटा-सा पसरा है
करता हूँ खुद से ही बातें
कोई हम सा तन्हा देखा है 
(28.)
क्या अमीरी, क्या ग़रीबी
भेद खोले है फ़क़ीरी
ग़म से तेरा भर गया दिल
ग़म से मेरी आँख गीली
तीरगी में जी रहा था
तूने आ के रौशनी की
ख़ूब भाएं मेरे दिल को
मस्तियाँ फ़रहाद की सी
मौत आये तो सुकूँ हो
क्या रिहाई, क्या असीरी


 (29.)
बदली ग़म की जब छायेगी
रात यहाँ गहरा जायेगी
गर इज़्ज़त बेचेगी ग़ुरबत
बच्चों की भूख मिटायेगी
साहिर ने जिसका ज़िक्र क्या
वो सुब्ह कभी तो आयेगी
बस क़त्ल यहाँ होंगे मुफ़लिस
आह तलक कुचली जायेगी
ख़ामोशी ओढ़ो ऐ शा' इर
कुछ बात न समझी जायेगी


 (30.)
ज़िन्दगी हमको मिली है चन्द रोज़
मौज-मस्ती लाज़मी है चन्द रोज़
इश्क़ का मौसम जवाँ है दोस्तों

हुस्न की महफ़िल सजी है चन्द रोज़
लौट आएगा सुहाना दौर फिर
ख़ून की बहती नदी है चन्द रोज़
है अमावस निर्धनों का भाग्य ही
क्यों चमकती चाँदनी है चन्द रोज़

(31.)
ज़िंदगी से मौत बोली ख़ाक़ हस्ती एक दिन
जिस्म को रह जाएँगी रूहें तरसती एक दिन
मौत ही इक चीज़ है कॉमन सभी इक  दोस्तो
देखिये क्या सर बलन्दी और पस्ती एक दिन

पास आने के लिए कुछ तो बहाना चाहिए
बस्ते-बस्ते ही बसेगी दिल की बस्ती एक दिन
रोज़ बनता और बिगड़ता हुस्न है बाज़ार का

दिल से ज़्यादा तो न होगी चीज़ सस्ती एक दिन
मुफ़लिसी है, शाइरी है, और है दीवानगी
"रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन"

 (32.) 
वो जब से ग़ज़ल गुनगुनाने लगे हैं
महब्बत के मंज़र सुहाने लगे हैं
मुझे हर पहर याद आने लगे हैं
वो दिल से जिगर में समाने लगे हैं
मिरे सब्र को आज़माने की ख़ातिर
वो हर बात पर मुस्कुराने लगे हैं
असम्भव को सम्भव बनाने की ख़ातिर
हथेली पे सरसों जमाने लगे हैं
नए दौर में भूख और प्यास लिखकर
मुझे बात हक़ की बताने लगे हैं
सुख़न में नई सोच की आँच लेकर
ग़ज़लकार हिंदी के आने लगे हैं
कि ढूंढों "महावीर" तुम अपनी शैली

तुम्हें मीरो-ग़ालिब बुलाने लगे हैं  

(33.)*( कृपया ग़ज़ल के नीचे फुटनोट देखें) 

"आपने क्या कभी ख़याल किया" 
रोज़ मुझसे नया सवाल किया
ज़िन्दगी आपकी बदौलत थी
आपने कब मिरा ख़याल किया
राज़े-दिल कह न पाये हम लेकिन
दिल ने इसका बहुत मलाल किया
ज़ोर ग़ैरों पे जब चला न कोई
आपने मुझको ही हलाल किया
हैं "महावीर" शेर ख़ूब तिरे
लोग कहते हैं क्या कमाल किया

_____________________


 * "आपने क्या कभी ख़याल किया" यह मिसरा परम आदरणीय तुफ़ैल चतुर्वेदी जी (संपादक "लफ़्ज़") ने परीक्षा स्वरुप दिया था। जिसे ख़ाकसार ने  पाँच शेर में तत्काल मौक़े पर कहा।

(34.)
सच हरदम कहना पगले
झूठ न अब सहना पगले
सजनी बोली साजन से
तू मेरा गहना पगले
घबराता हूँ तन्हा मैं
दूर न अब रहना पगले
दिल का दर्द उभारे जो
शेर वही कहना पगले
राखी का दिन आया है
याद करे बहना पगले
रुक मत जाना एक जगह
दरिया सा बहना पगले

(35.)
लहज़े में क्यों बेरुख़ी है
आपको भी कुछ कमी है
पढ़ लिया उनका भी चेहरा
बंद आँखों में नमी है
सच ज़रा छूके जो गुज़रा
दिल में अब तक सनसनी है
भूल बैठा हादिसों में
ग़म है क्या और क्या ख़ुशी है
दर्द काग़ज़ में जो उतरा
तब ये जाना शाइरी है

(36.)
आप खोये हैं किन नज़ारों में
लुत्फ़ मिलता नहीं बहारों में
आग काग़ज़ में जिससे लग जाये
काश! जज़्बा वो हो विचारों में
भीड़ के हिस्से हैं सभी जैसे
हम हैं गुमसुम खड़े कतारों में
इश्क़ उनको भी रास आया है
अब वो दिखने लगे हज़ारों में
झूठ को चार सू पनाह मिली
सच को चिनवा दिया दिवारों में

(37.)
"लौट आया समय हर्ष उल्लास का"
रंग ऐसा चढ़ा आज मधुमास का

नाचती राधिका, नाचती गोपियाँ
खेल अदभुत रचा है महारास का
पाठशाला यह जीवन बना आजकल
नित नया पाठ है भूख और प्यास का
अत्यधिक था भरोसा मुझे आपपर
आपने क्यों किया क़त्ल विश्वास का
देश संकट में है मत ठिठोली करो
आज अवसर नहीं हास-परिहास का


(38.)
बीती बातें बिसरा कर
अपने आज को अच्छा कर
कर दे दफ़्न बुराई को
अच्छाई की चर्चा कर
लोग तुझे बेहतर समझे
वो जज़्बा तू पैदा कर
हर शय में है नूरे-ख़ुदा
हर शय की तू पूजा कर
जब ग़म से जी घबराये
 औरों के ग़म बाँटा कर

 (39.) 
घास के झुरमुट में बैठे देर तक सोचा किये
ज़िन्दगानी बीती जाए और हम कुछ ना किये
जोड़ ना पाए कभी हम चार पैसे ठीक से
पेट भरने के लिए हम उम्रभर भटका किये
हम दुखी हैं गीत खुशियों के भला कैसे रचें
आदमी का रूप लेकर ग़म ही ग़म झेला किये
फूल जैसे तन पे दो कपड़े नहीं हैं ठीक से
शबनमी अश्कों की चादर उम्रभर ओढ़ा किये
क्या अमीरी, क्या फ़क़ीरी, वक़्त का सब खेल है
भेष बदला, इक तमाशा, उम्रभर देखा किये


(40.)

तेरी तस्वीर को याद करते हुए
एक अरसा हुआ तुझको देखे हुए
एक दिन ख़्वाब में ज़िन्दगी मिल गई
मौत की शक्ल में खुद को जीते हुए
आह भरते रहे उम्रभर इश्क में
ज़िन्दगी जी गये तुझपे मरते हुए
कितनी उम्मीद तुमसे जुड़ी ख़ुद-ब-खुद
कितने अरमान हैं दिल में सिमटे हुए
फिर मुकम्मल बनी तेरी तस्वीर यों
खेल ही खेल में रंग भरते हुए


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ग़ज़लकार : महावीर उत्तरांचली
पता : बी-4 /79, पर्यटन विहार, वसुंधरा इन्क्लेव, दिल्ली 110096 
चलभाष: 9818150516