(16.)
नज़र में रौशनी है
वफ़ा की ताज़गी है
जियूं चाहे मैं जैसे
ये मेरी ज़िंदगी है
ग़ज़ल की प्यास हरदम
लहू क्यों मांगती है
मिरी आवारगी में
फ़क़त तेरी कमी है
इसे दिल में बसा लो
ये मेरी शा'इरी है
(17.)
सोच का इक दायरा है, उससे मैं कैसे उठूँ
सालती तो हैं बहुत यादें, मगर मैं क्या
करूँ
ज़िंदगी है तेज़ रौ, बह जायेगा सब कुछ यहाँ
कब तलक मैं आँधियों से, जूझता-लड़ता रहूँ
हादिसे इतने हुए हैं दोस्ती के नाम पर
इक तमाचा-सा लगे है, यार जब कहने लगूं
जा रहे हो छोड़कर इतना बता दो तुम मुझे
मैं तुम्हारी याद में तड़पूँ या फिर रोता
फिरूँ
सच हों मेरे स्वप्न सारे, जी, तो चाहे काश
मैं
पंछियों से पंख लेकर, आसमाँ छूने लगूं
(18.)
दिल से उसके जाने कैसा बैर निकला
जिससे अपनापन मिला वो ग़ैर निकला
था करम उस पर ख़ुदा का इसलिए ही
डूबता वो शख़्स कैसा तैर निकला
मौज-मस्ती में आख़िर खो गया क्यों
जो बशर करने चमन की सैर निकला
सभ्यता किस दौर में पहुँची है आख़िर
बंद बोरी से कटा इक पैर निकला
वो वफ़ादारी में निकला यूँ अब्बल
आंसुओं में धुलके सारा बैर
निकला
(19.)
आपको मैं मना नहीं सकता
चीरकर दिल दिखा नहीं सकता
इतना पानी है मेरी आँखों में
बादलों में समा नहीं सकता
तू फरिश्ता है दिल से कहता हूँ
कोई तुझसा मैं ला नहीं सकता
हर तरफ़ एक शोर मचता है
सामने सबके आ नहीं सकता
कितनी ही शौहरत मिले लेकिन
क़र्ज़ माँ का चुका नहीं सकता
(20.)
राह उनकी देखता है
दिल दिवाना हो गया है
छा रही है बदहवासी
दर्द मुझको पी रहा है
कुछ रहम तो कीजिये अब
दिल हमारा आपका है
आप जबसे हमसफ़र हो
रास्ता कटने लगा है
ख़त्म हो जाने कहाँ अब
ज़िंदगी का क्या पता है
नज़र को चीरता जाता है मंज़र
बला का खेल खेले है समन्दर
मुझे अब मार डालेगा यकीनन
लगा है हाथ फिर क़ातिल के खंजर
है मकसद एक सबका उसको पाना
मिल मस्जिद में या मंदिर में
जाकर
पलक झपकें तो जीवन बीत जाये
ये मेला चार दिन रहता है
अक्सर
नवाज़िश है तिरी मुझ पर तभी
तो
मिरे मालिक खड़ा हूँ आज तनकर
बीती बातें याद न कर
जी में चुभता है नश्तर
हासिल कब तक़रार यहाँ
टूट गए कितने ही घर
चाँद-सितारे साथी थे
नींद न आई एक पहर
तनहा हूँ मैं बरसों से
मुझ पर भी तो डाल नज़र
पीर न अपनी व्यक्त करो
यह उपकार करो मुझ पर
छूने को आसमान काफ़ी है
पर अभी कुछ उड़ान बाक़ी है
कैसे ईमाँ बचाएं हम अपना
सामने खुशबयान साकी है
कैसे वो दर्द को ज़बां देगा
क़ैद में बेज़बान पाखी है
लक्ष्य पाकर भी क्यों कहे
दुनिया
कुछ तिरा इम्तिहान बाक़ी है
कहने हैं कुछ नए फ़साने भी
इक नया आसमान बाक़ी है
लहज़े में क्यों बेरूख़ी है
आपको भी कुछ कमी है
पढ़ लिया उनका भी चेहरा
बंद आँखों में नमी है
सच ज़रा छूके जो गुज़रा
दिल में अब तक सनसनी है
भूल बैठा हादिसों में
ग़म है क्या और क्या ख़ुशी है
दर्द काग़ज़ में जो उतरा
तब ये जाना शाइरी है
धूप का लश्कर बढ़ा जाता है
छाँव का मंज़र लुटा जाता है
रौशनी में इस कदर पैनापन
आँख में सुइयां चुभा जाता है
चहचहाते पंछियों के कलरव में
प्यार का मौसम खिला जाता है
फूल-पत्तों पर लिखा कुदरत ने
वो करिश्मा कब पढ़ा जाता है
(26.)
ख़्वाब झूठे हैं
दर्द देते हैं
रंग रिश्तों के
रोज़ उड़ते हैं
कैसे-कैसे सच
लोग सहते हैं
प्यार सच्चा था
ज़ख़्म गहरे हैं
हाथ में सिग्रेट
तन्हा बैठे हैं
(27.)
मकड़ी-सा जाला बुनता है
ये इश्क़ तुम्हारा कैसा है
ऐसे तो न थे हालात कभी
क्यों ग़म से कलेजा फटता है
मैं शुक्रगुज़ार तुम्हारा हूँ
मेरा दर्द तुम्हें भी दिखता है
चारों तरफ़ तसव्वुर में भी
इक सन्नाटा-सा पसरा है
करता हूँ खुद से ही बातें
कोई हम सा तन्हा देखा है
(28.)
क्या अमीरी, क्या ग़रीबी
भेद खोले है फ़क़ीरी
ग़म से तेरा भर गया दिल
ग़म से मेरी आँख गीली
तीरगी में जी रहा था
तूने आ के रौशनी की
ख़ूब भाएं मेरे दिल को
मस्तियाँ फ़रहाद की सी
मौत आये तो सुकूँ हो
क्या रिहाई, क्या असीरी
(29.)
बदली ग़म की जब छायेगी
रात यहाँ गहरा जायेगी
गर इज़्ज़त बेचेगी ग़ुरबत
बच्चों की भूख मिटायेगी
साहिर ने जिसका ज़िक्र क्या
वो सुब्ह कभी तो आयेगी
बस क़त्ल यहाँ होंगे मुफ़लिस
आह तलक कुचली जायेगी
ख़ामोशी ओढ़ो ऐ शा' इर
कुछ बात न समझी जायेगी
(30.)
ज़िन्दगी हमको मिली है चन्द रोज़
मौज-मस्ती लाज़मी है चन्द रोज़
इश्क़ का मौसम जवाँ है दोस्तों
हुस्न की महफ़िल सजी है चन्द रोज़
लौट आएगा सुहाना दौर फिर
ख़ून की बहती नदी है चन्द रोज़
है अमावस निर्धनों का भाग्य ही
क्यों चमकती चाँदनी है चन्द रोज़
(31.)
ज़िंदगी से मौत बोली ख़ाक़ हस्ती एक दिन
जिस्म को रह जाएँगी रूहें तरसती एक दिन
मौत ही इक चीज़ है कॉमन सभी इक दोस्तो
देखिये क्या सर बलन्दी और पस्ती एक दिन
पास आने के लिए कुछ तो बहाना चाहिए
बस्ते-बस्ते ही बसेगी दिल की बस्ती एक दिन
रोज़ बनता और बिगड़ता हुस्न है बाज़ार का
दिल से ज़्यादा तो न होगी चीज़ सस्ती एक दिन
मुफ़लिसी है, शाइरी है, और है दीवानगी
"रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन"
(32.)
वो जब से ग़ज़ल गुनगुनाने लगे हैं
महब्बत के मंज़र सुहाने लगे हैं
मुझे हर पहर याद आने लगे हैं
वो दिल से जिगर में समाने लगे हैं
मिरे सब्र को आज़माने की ख़ातिर
वो हर बात पर मुस्कुराने लगे हैं
असम्भव को सम्भव बनाने की ख़ातिर
हथेली पे सरसों जमाने लगे हैं
नए दौर में भूख और प्यास लिखकर
मुझे बात हक़ की बताने लगे हैं
सुख़न में नई सोच की आँच लेकर
ग़ज़लकार हिंदी के आने लगे हैं
कि ढूंढों "महावीर" तुम अपनी शैली
तुम्हें मीरो-ग़ालिब बुलाने लगे हैं
(33.)*( कृपया ग़ज़ल के नीचे फुटनोट देखें)
"आपने क्या कभी ख़याल किया"
रोज़ मुझसे नया सवाल किया
ज़िन्दगी आपकी बदौलत थी
आपने कब मिरा ख़याल किया
राज़े-दिल कह न पाये हम लेकिन
दिल ने इसका बहुत मलाल किया
ज़ोर ग़ैरों पे जब चला न कोई
आपने मुझको ही हलाल किया
हैं "महावीर" शेर ख़ूब तिरे
लोग कहते हैं क्या कमाल किया
_____________________
*
"आपने क्या कभी ख़याल किया" यह मिसरा परम आदरणीय तुफ़ैल चतुर्वेदी जी
(संपादक "लफ़्ज़") ने परीक्षा स्वरुप दिया था। जिसे ख़ाकसार ने पाँच शेर में
तत्काल मौक़े पर कहा।
(34.)
सच हरदम कहना पगले
झूठ न अब सहना पगले
सजनी बोली साजन से
तू मेरा गहना पगले
घबराता हूँ तन्हा मैं
दूर न अब रहना पगले
दिल का दर्द उभारे जो
शेर वही कहना पगले
राखी का दिन आया है
याद करे बहना पगले
रुक मत जाना एक जगह
दरिया सा बहना पगले
(35.)
लहज़े में क्यों बेरुख़ी है
आपको भी कुछ कमी है
पढ़ लिया उनका भी चेहरा
बंद आँखों में नमी है
सच ज़रा छूके जो गुज़रा
दिल में अब तक सनसनी है
भूल बैठा हादिसों में
ग़म है क्या और क्या ख़ुशी है
दर्द काग़ज़ में जो उतरा
तब ये जाना शाइरी है
(36.)
आप खोये हैं किन नज़ारों में
लुत्फ़ मिलता नहीं बहारों में
आग काग़ज़ में जिससे लग जाये
काश! जज़्बा वो हो विचारों में
भीड़ के हिस्से हैं सभी जैसे
हम हैं गुमसुम खड़े कतारों में
इश्क़ उनको भी रास आया है
अब वो दिखने लगे हज़ारों में
झूठ को चार सू पनाह मिली
सच को चिनवा दिया दिवारों में
(37.)
"लौट आया समय हर्ष उल्लास का"
रंग ऐसा चढ़ा आज मधुमास का
नाचती राधिका, नाचती गोपियाँ
खेल अदभुत रचा है महारास का
पाठशाला यह जीवन बना आजकल
नित नया पाठ है भूख और प्यास का
अत्यधिक था भरोसा मुझे आपपर
आपने क्यों किया क़त्ल विश्वास का
देश संकट में है मत ठिठोली करो
आज अवसर नहीं हास-परिहास का
(38.)
बीती बातें बिसरा कर
अपने आज को अच्छा कर
कर दे दफ़्न बुराई को
अच्छाई की चर्चा कर
लोग तुझे बेहतर समझे
वो जज़्बा तू पैदा कर
हर शय में है नूरे-ख़ुदा
हर शय की तू पूजा कर
जब ग़म से जी घबराये
औरों के ग़म बाँटा कर
(39.)
घास के झुरमुट में बैठे देर तक
सोचा किये
ज़िन्दगानी बीती जाए और हम कुछ ना किये
जोड़ ना पाए कभी हम चार पैसे ठीक से
पेट भरने के लिए हम उम्रभर भटका किये
हम दुखी हैं गीत खुशियों के भला कैसे रचें
आदमी का रूप लेकर ग़म ही ग़म झेला किये
फूल जैसे तन पे दो कपड़े नहीं हैं ठीक से
शबनमी अश्कों की चादर उम्रभर ओढ़ा किये
क्या अमीरी, क्या फ़क़ीरी, वक़्त का सब खेल है
भेष बदला, इक तमाशा, उम्रभर देखा किये
(40.)
तेरी तस्वीर को याद करते हुए
एक अरसा हुआ तुझको देखे हुए
एक दिन ख़्वाब में ज़िन्दगी मिल गई
मौत की शक्ल में खुद को जीते हुए
आह भरते रहे उम्रभर इश्क में
ज़िन्दगी जी गये तुझपे मरते हुए
कितनी उम्मीद तुमसे जुड़ी ख़ुद-ब-खुद
कितने अरमान हैं दिल में सिमटे हुए
फिर मुकम्मल बनी तेरी तस्वीर यों
खेल ही खेल में रंग भरते हुए
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ग़ज़लकार : महावीर उत्तरांचली